Friday, 9 July 2010

मैं जीवन के गीत रचता हूँ...

काली रात के कपाल पे, मैं भोर की लाली मलता हूँ।
मुझे भय नहीं मृत्यु का, मैं जीवन के गीत रचता हूँ।
मैं नदी हूँ, मैं पवन हूँ, अपनी मस्ती में रहता हूँ।
सन्नाटे उद्वेलित मुझे हैं करते, मैं विप्लव का पूजन करता हूँ।
तुम सिमटे चार दीवारों में, मैं उन्मुक्त गगन में उड़ता हूँ।
तुम्हे मंजिल की अभिलाषा है, मैं पथ का वंदन करता हूँ।
तुम्हे चरम सुख की तृष्णा है, मैं हंसी ठिठोली करता हूँ।
तुम मुझपे हँसते हो , मैं तुमपे कारुण क्रंदन करता हूँ.....

1 comment:

Masihuddin said...

Aha beutiful creation!!!